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ताइवान पर क्यों नजरें गड़ाए है चीन? जानिए क्या कहता है दोनों देशों का इतिहास

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चीन और ताइवान अपने इतिहास की जंग आज भी लड़ रहे हैं. चीन ताइवान को अपने से अलग हुए हिस्से से रूप में देखता है. जबकि ताइवान की एक बड़ी आबादी अपने आपको एक अलग देश के रूप में देखना चाहती है. हालांकि चीन पिछले कुछ महीनों से बार-बार दावा करने लगा है कि वो बात-चीत से या सैन्य बल से ताइवान को चीन में शामिल कर लेगा. यही सबसे बड़ी वजह है दोनों देशों के बीच विवाद की.चीन की राजनीतिक पार्टी का नाम है, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन. जबकि ताइवान की राजनीतिक पार्टी का नाम है रिपब्लिकन पार्टी ऑफ चीन. क्यों अहम है ताइवान चीन के लिए, ये अपने मुल्क का एक अटूट हिस्सा है लेकिन इस द्वीप को घर कहने वालों के लिए राष्ट्रीय पहचान की भावना दृढ़ हो रही है. ताइवान को आधिकारिक तौर पर रिपब्लिक ऑफ चाइना के रूप में जाना जाता है. एक द्वीप, जिसकी चीन से सिर्फ 130 किलोमीटर की दूरी है. चीनी शासन इसे अपने ही मुल्क के एक अलग प्रांत के रूप में देखता है. लेकिन ताइवान के नेताओं का इस द्वीप की स्थिति पर हमेशा अलग-अलग विचार रहा है. ये कहानी 1949 में शुरू होती है. चीन गणराज्य या रिपब्लिक ऑफ चाइना पार्टी दशकों से चीन पर शासन कर रही थी.

Eknath Shinde: कैसे 'ठाणे के ठाकरे' का शागिर्द उद्धव पर पड़ा भारी, शिवसेना आलाकमान की आंखों में हमेशा खटका

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ये कहानी शुरू होती है ठाणे के ठाकरे से. वो शख़्स जिसने मुंबई के बाहर बसे ठाणे शहर को अपनी जागीर बना ली थी, सिर्फ डंडे के बल पर नहीं, बल्कि अपनी लोकप्रियता की ताकत से. एक ऐसा शिवसैनिक जो झगड़े कराने नहीं, बल्कि झगड़े सुलझाने के लिए जाना जाता था, जिसकी अपनी समानांतर सरकार चलती थी, समानांतर अदालत चलती थी और जिसका दिया वचन ही उनका शासन होता था. आनंद दीघे के शागिर्द हैं एकनाथ शिंदे ठाणे में आनंद दीघे को गरीबों और लाचारों की मदद के लिए जाना जाता है, आज भी लोग शिव सैनिक आनंद दीघे को धर्मवीर के नाम से पुकारते हैं. धर्मवीर आनंद दीघे का वचन अगर ठाणे के लिए आदेश था तो शिवसैनिक आनंद दीघे के लिए अपने गुरू का आदेश ही अंतिम आदेश था. बाला साहेब ठाकरे का ये शागिर्द कई बार विद्रोही भी रहा और सेना को बगावती तेवर भी दिखाए, लेकिन आखिर तक शिवसैनिक बने रहे. जब बाबा साहेब का ये शागिर्द अपने गुरू की अर्चना कर रहा था तो धर्मवीर आनंद दीघे साथ ही साथ समानान्तर अपने चेलों की एक भरोसेमंद सेना तैयार कर रहा था, जिसमें सबसे अहम था एकनाथ शिंदे. ठाणे में ऑटो चलाते थे एकनाथ शिंदे ठाणे में ऑटो चलाने वाले एकनाथ शिंदे ने खु

अमेरिका से भले ही जंग जीत गया हो तालिबान लेकिन उसे खुद से कौन बचाएगा?

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तालिबान अपने आप में एक इकलौता संगठन नहीं है, बल्कि संगठनों से मिलकर बना हुआ. यहां हमेशा नियंत्रण को लेकर लड़ाइयां चलती रहती हैं. तालिबान और हक्कानी नेटवर्क की जंग सबसे ऊपर है. पाकिस्तान की कमान में काम करनेवाला हक्कानी नेटवर्क सरकार में अहम ओहदों को हासिल करना चाहता है. कुछ अहम ओहदों पर इसका कब्जा भी हो चुका है लेकिन ये तय है कि ऐसा करने से कबीलों की जंग और ज्यादा तेज होगी. इसको समझने के लिए अफ़गानिस्तान को समझना होगा. दरअसल अफगानिस्तान वो मुल्क है जो मध्य, पश्चिम और दक्षिण एशिया की कई जातियों और भाषाई समूहों से बना है और उन्हें सदियों से आत्मसात किए हुए है. इतिहास में इन जातियों और समूहों ने आपस में मिलकर कबीले बनाए. अलग-अलग जातियों और कौम के अलग-अलग कबीले बने. जिसमें मुख्य तौर पर जो कौमें नज़र आती हैं वो हैं पश्तून, उज़्बेक, ताजिक, हज़ारा, ऐमाक, तुर्की और बलूच. इन सब में सबसे ऊपर है यानी सबसे प्रमुख कौम है पश्तून. जो अफगानी आबादी का 42% हैं. दुर्रानी- गिलजाई कबीलों में जंग हालांकि पश्तून खुद भी वो कौम है जो कबीलों में बंटी हुई है. पश्तूनों में कम से कम 400 कबीले हैं और इन कबीलों में

बचपन के वो दो सपने जो ताउम्र अमृता से उलझे रहे

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अमृता प्रीतम के साहित्य से ज्यादा दिलचस्प उनकी जिंदगी है. जितनी बार जानने की कोशिश करते हैं, उतनी बार लगता है कि अभी तो अमृता को जाना ही नहीं. पहले लगता था कि इमरोज का अमृता से और अमृता का साहिर से. मोहब्बत की यही कहानी है जो इकलौती सच्ची है. लेकिन अमृता की मोहब्बत न साहिर में छिपी है न इमरोज में और न ही बाकी किरदारों जैसे सज्जाद या मोहन सिंह में जो खामोश प्रेम की मिसाल हैं. ये उस मोहब्बत की कहानी है जो ताउम्र उनसे लिपटी रही, एक ऐसे लिबास की तरह जिसका रंग लगातार छूटता था और उनकी जिंदगी को रंगता जा रहा था, फिर भी वो लिबास कभी फ़ीका नहीं पड़ा बल्कि और चटकीला होता गया. ‘रसीदी टिकट’ अमृता की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में अमृता ने अपने दो सपनों का ज़िक्र किया है. इन दो सपनों की कल्पना उनके अस्तित्व से ऐसे जुड़ी है कि वो इस प्रेमपाश को ताज़िंदगी तोड़ नहीं सकीं. 4 साल की उम्र में सगाई, 16 साल में विवाह, 20 साल में पहली मोहब्बत और 38 साल में खुद के उस लिबास से मुलाकात जिससे वो पिछले 39 वर्षों से प्यार कर रही थीं. अपने जन्म से भी पहले से, जब बाबू तेजा सिंह (जहां अमृता के माता-पिता पढ़ाते थे, उस स्क

सावरकर का राष्ट्रवाद बनाम हिंदू राष्ट्रवाद

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आम तौर पर किसी भी इंसान की शख्सियत आस-पास की बातें सुनकर, उन पर विश्वास कर के बनती हैं. उनका विश्वास, उनकी आस्था अक्सर एक आडंबर के दायरे में कैद रहती है जो भक्ति के भंवर तक पहुंच जाती है और फिर इंसान उसी में डूबता और उतराता रहता है. मेरी नजर में सावरकर को लेकर भी कुछ ऐसा ही है. हिंदुत्व के प्रति उनकी विचारधारा राष्ट्रवाद के एक ऐसे आभामंडल में कैद नजर आती है जिसमें वह स्वयं को भी पहचानने से इनकार कर देते हैं. एक ऐसी विचारधारा जो विचारों को स्वतंत्रता नहीं देती बल्कि पूर्वाग्रह से ग्रसित और एक विचार में ही कैद कर के रख देती है. सावरकर की सोच में दूर दृष्टि तो नजर आती है लेकिन ये दूर दृष्टि समाज की बहुवादी सुन्दरता को चोट पहुंचाती दिखती है. विनायक दामोदर सावरकर शुरू से हिंदुत्व के झंडाबरदार नहीं थे बल्कि एक सोची समझी रणनीति के तहत उन्होंने हिंदू धर्म और हिंदू आस्था को राष्ट्रीयता का चोला ओढ़ाकर राजनीतिक हिंदुत्व की अवधारणा रखी, जिसे उन्होंने क्रांतिकारी सावरकार के बाद परिवर्तित हुए अवसरवादी सावरकार के तौर पर हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम में प्रयोग भी किया. राष्ट्रवादी हिंदुत्व की अवध

Farmer Commits Suicide During Aaps Kisan Rally In Delhi

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आज वो अकेले फांसी नहीं चढ़ा, आज वो अकेले नहीं मरा है। वो शर्म, वो विचारधारा, वो सियासत की बातें, सबने तो आज दिल्ली के उस पेड़ पर फंदे से जान दी है। ज़िंदगी दो पल के लिए उस दरख़्त से उतरकर आम लोगों के बीच सांसे ले सकती थी, पर धर्म का धोखा ऐसा कि जिसे खेत में जान देनी थी वो पेड़ पर लटका है। आज वो अकेले फांसी नहीं चढ़ा, आज वो अकेले नहीं मरा है। जो संवाद की राग में रंगीन तस्वीर बनाते रहे, जो मौत में अपने काम की ताबीर सजाते रहे वो भी तो आज दिल्ली के उस फंदे से झूल गये। यकीं ना आए तो किसी घर में खटखटा के देख लेना, मौत का सन्नाटा तुम्हारे इस्तेकबाल में खड़ा होगा। आज वो अकेले फांसी नहीं चढ़ा, आज वो अकेले नहीं मरा है। व्यवस्था आज वहां टंगी है, लोकतंत्र आज वहां फंदे में जकड़ा है। जो सबको ज़िंदगी देता है वो आज ख़ुद को इस मुल्क पर बलिदान करता है। अरे ओ भारत मां की संतानों, अब भी ना तुम जगे तो समझ लेना, वो किसान अकेला नहीं मरा है, उसके साथ तुम भी मर चुके हो।

ये साल वेगस के नाम

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मैंने वो फ़िल्म देखी Ocean’s 11 और मैं दीवाना हो गया। जी नहीं Julia Roberts का नहीं, ना ही George Cloony या Brad Pitt का। मैं दीवाना हो गया उस एक जगह का। वो जगह जहां दिन नहीं ढलता, जहां सूरज के निकलने या डूबने का कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। जहां जगमगाती इमारतें सीना ताने खड़ी हैं, मानो कोई योद्धा, युद्ध जीतकर आया हो और स्वाभिमान से भरा अपनी जनता के समक्ष खड़ा हो और उसे सुरक्षा का भरोसा दे रहा हो। जहां की आबो-हवा आज़ादी का ऐसा एहसास कराती है कि आप खुलकर कुछ भी कर सकते हैं। चंद गुनाह भी यहां गुनाह नहीं हैं। तभी तो इसे कहते हैं Sin City Las Vegas सिन सिटी लास वेगस।  यही वो जगह है जहां मैं साल 2014 में घूमने जाना चाहूंगा। जहां जाकर मैं सिर्फ और सिर्फ ख़ुद में खो जाऊं। तस्वीरों से झांकता लास वेगस जब इतना जीवंत और स्वछंद लगता है तो सोचिये जब मैं वहां पहुंचुंगा तो मैं स्वयं को कितना स्वतंत्र अनुभव करूंगा। मैं उसे अभी से महसूस कर सकता हूं।  View of Las Vegas City | Image : http://www.maxisciences.com वैसे मेरा वहां जाने का प्लान है साल के अंत तक, क्रिसमस पार्टी या न्यू ईयर ईव पर। औ