ताइवान पर क्यों नजरें गड़ाए है चीन? जानिए क्या कहता है दोनों देशों का इतिहास

चीन और ताइवान अपने इतिहास की जंग आज भी लड़ रहे हैं. चीन ताइवान को अपने से अलग हुए हिस्से से रूप में देखता है. जबकि ताइवान की एक बड़ी आबादी अपने आपको एक अलग देश के रूप में देखना चाहती है. हालांकि चीन पिछले कुछ महीनों से बार-बार दावा करने लगा है कि वो बात-चीत से या सैन्य बल से ताइवान को चीन में शामिल कर लेगा. यही सबसे बड़ी वजह है दोनों देशों के बीच विवाद की.चीन की राजनीतिक पार्टी का नाम है, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन. जबकि ताइवान की राजनीतिक पार्टी का नाम है रिपब्लिकन पार्टी ऑफ चीन.


क्यों अहम है ताइवान
चीन के लिए, ये अपने मुल्क का एक अटूट हिस्सा है लेकिन इस द्वीप को घर कहने वालों के लिए राष्ट्रीय पहचान की भावना दृढ़ हो रही है. ताइवान को आधिकारिक तौर पर रिपब्लिक ऑफ चाइना के रूप में जाना जाता है. एक द्वीप, जिसकी चीन से सिर्फ 130 किलोमीटर की दूरी है. चीनी शासन इसे अपने ही मुल्क के एक अलग प्रांत के रूप में देखता है. लेकिन ताइवान के नेताओं का इस द्वीप की स्थिति पर हमेशा अलग-अलग विचार रहा है.

ये कहानी 1949 में शुरू होती है. चीन गणराज्य या रिपब्लिक ऑफ चाइना पार्टी दशकों से चीन पर शासन कर रही थी. लेकिन एक गृहयुद्ध हुआ और रिपब्लिक ऑफ चाइना का झंडा उठाए कम्युनिस्ट गृहयुद्ध में हार गए. रिपब्लिक ऑफ चाइना के नेता चियांग काई-शेक और उनकी पार्टी के बचे नेता कुओमिन्तांग ताइवान भाग गए. सिपाहियों से लेकर बुद्धिजीवी और बिजनेस एलीट तक. करीब 20 लाख लोगों ने मेन लैंड चाइना को छोड़ ताइवान को अपना घर बना लिया. अपने साथ ये लोग राष्ट्रीय खजाने और चीन के अधिकांश स्वर्ण भंडारों से सोना लेकर ताइवान पहुंचे थे.

ऐसे हुआ विवाद
आने वाले सालों में ताइपे और बीजिंग के नेताओं में विवाद होने लगा. चीन ने ताइवान पर अधिकार जताया. विवाद 1971 में समाप्त हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र ने रिपब्लिक ऑफ चाइना को निष्कासित कर दिया और ताइवान को अलग मुल्क का दर्जा देने से मना दिया. अधिकांश पश्चिमी शक्तियों ने कम्युनिस्ट पार्टी के पक्ष में अपनी स्थिति बदलनी शुरू कर दी लेकिन इससे ताइवान नहीं रुका.

विकास की राह पर चला ताइवान
कूटनीतिक रूप से अलग थलग पड़े इस मुल्क ने, जिसे मुल्क की मान्यता नहीं मिली थी, वो इंडस्ट्री और इकोनॉमिक ग्रोथ पर ध्यान देने लगा. ये वो बदलाव था जिसे ताइवान के चमत्कार के रूप में जाना जाता है. ताइवान की जीडीपी 1965 और 1986 के बीच 360% तक बढ़ी. इससे भी अधिक प्रभावशाली इसका वैश्विक औद्योगिक उत्पादन था, जिसमें उसी दौरान 680% की बढ़त दर्ज हुई. अमीर और गरीब के बीच की सामाजिक खाई घट गई थी. ताइवान पश्चिमी देशों से भी बेहतर कर रहा था. ताइवान, सिंगापुर के साथ, दक्षिण कोरिया और हांगकांग को 'चार एशियाई शेर' के रूप में जाना जाने लगा. ऐसे एशियाई शेर जिन्होंने बीजिंग के साथ क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों पर सवाल उठाना शुरू किया.

2016 में साई इंग वेन का चुनाव ताइवान के लोगों के लिए राजनीतिक जागृति के रूप में आया था.क्योंकि साई इंग वेन का राजनीतिक संदेश ताइवान की पहचान के महत्व के इर्द-गिर्द घूमता है. एक संदेश जिसने उन्हें पिछले साल एक और लैंडस्लाइड जीत दिलाई. साई इंग वेन ने उसी वक़्त प्रतिज्ञा की कि चीन के साथ ताइवान के संबंधों के केंद्र में लोकतंत्र होगा. यही शी जिनपिंग को मंज़ूर नहीं.

चीन बना बड़ा खतरा
बीजिंग ने अपनी आक्रामकता बढ़ाई. आज न्यूक्लियर हथियार से लैस चीनी बॉम्बर्स ताइवान के ऊपर अमूमन हर रोज़ मंडराते हैं. सैन्य बल का खौफ दिखाने के साथ जिनपिंग आर्थिक प्रतिबंधों का हथियार भी इस्तेमाल करता है, और जब दुनिया ताइवान के लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हो रही है तो चीन की तानाशाह सरकार ताइवान के लिए आधी दुनिया की ताकत से भी टकराने को तैयार है.

ताइवान में चुनी हुई सरकार
भले ही ताइवान को संयुक्त राष्ट्र से मान्यता नहीं है, फिर भी 72 सालों से ताइवान में गणतंत्र है, ताइवान की अपनी सेना है, चुनी हुई सरकार है, बाकी मुल्कों की तरह अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक रिश्ते हैं, कहने का मतलब एक मुल्क की पूरी पहचान है और ताइवान के लोगों का हक है कि वो अपनी पहचान के लिए लड़ें. चीन अगर अपने दावे को नहीं छोड़ता तो किसी और मुल्क की तरह ताइवान का अधिकार है कि वो अपनी स्वतंत्रता, संप्रभुता और अखंडता के लिए लड़े और विश्व को ताइवान के साथ खड़ा होना होगा अन्यथा चीन की विस्तारवादी सोच दुनिया की शांति व्यवस्था में भयानक खलल डाल सकती है.


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