आज वो अकेले फांसी नहीं चढ़ा, आज वो अकेले नहीं मरा है। वो शर्म, वो विचारधारा, वो सियासत की बातें, सबने तो आज दिल्ली के उस पेड़ पर फंदे से जान दी है। ज़िंदगी दो पल के लिए उस दरख़्त से उतरकर आम लोगों के बीच सांसे ले सकती थी, पर धर्म का धोखा ऐसा कि जिसे खेत में जान देनी थी वो पेड़ पर लटका है। आज वो अकेले फांसी नहीं चढ़ा, आज वो अकेले नहीं मरा है। जो संवाद की राग में रंगीन तस्वीर बनाते रहे, जो मौत में अपने काम की ताबीर सजाते रहे वो भी तो आज दिल्ली के उस फंदे से झूल गये। यकीं ना आए तो किसी घर में खटखटा के देख लेना, मौत का सन्नाटा तुम्हारे इस्तेकबाल में खड़ा होगा। आज वो अकेले फांसी नहीं चढ़ा, आज वो अकेले नहीं मरा है। व्यवस्था आज वहां टंगी है, लोकतंत्र आज वहां फंदे में जकड़ा है। जो सबको ज़िंदगी देता है वो आज ख़ुद को इस मुल्क पर बलिदान करता है। अरे ओ भारत मां की संतानों, अब भी ना तुम जगे तो समझ लेना, वो किसान अकेला नहीं मरा है, उसके साथ तुम भी मर चुके हो।
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