जी करता है केजरीवाल हो जाऊं


जी करता है केजरीवाल हो जाऊं। लेकिन कैसे हो जाऊं। वो तो सुबह-सुबह उठा जाता है, लोगों की समस्याएं सुनता है। मैं तो लेट से उठने का आदी हूं और उठते ही ऊपरवाले को समस्याएं सुनाने का आदी हूं। मैं कैसे केजरीवाल हो जाऊं? केजरीवाल होने के लिए त्यागना होगा, ज़्यादा ज़िम्मेदारियां उठाने के लिए कम ज़िम्मेदारियों को छोड़ना होगा। लेकिन वो कम ज़िम्मेदारियां ही तो अपनी ज़िम्मेदारियां लगती हैं, ज़्यादा ज़िम्मेदारियां तो ज़माने की लगती हैं। मैं कैसे छोड़ पाऊंगा इन अपनी कही जानेवाली कम ज़िम्मेदारियों को।

जब दिल्ली आया था तो भी मैं दिल्ली को देने थोड़े ही आया था, मैं तो दिल्ली से लेने आया था। बाकियों की तरह दिल्ली को चूसने ही आया था। चूस ही रहा हूं, भले ही ये भूल गया था कि दिल्ली को चूसने के चक्कर में अपने भीतर के माधव को चुसने भी दे रहा हूं। याद है कई बार नाइंसाफ़ी पर अपनी आंखों को मूंद लेना, कई बार टूटते नियमों पर चुप्पी साध लेना, कई बार सिस्टम से नाराज़गी को नुक्कड़ की चाय से ही निपटा देना। अब ये सब याद आता है, लेकिन ये भी महज़ बेवफ़ा महबूबा की यादों की तरह है, जो झुंझलाहट तो भरता है लेकिन ज़िद पैदा नहीं करता, जोश तो जगाता है लेकिन व्यवहार में उतर नहीं पाता, जी करता है लेकिन जी नहीं पाता। यहीं वो मन का केजरीवाल ज़िंदा होकर भी ज़हन में उतर नहीं पाता। 

मैं कैसे केजरीवाल हो जाऊं? घर में बच्चों की फ़ीस देनी है, खाने का इंतज़ाम करना है, मकान का किराया भी देना है और तमाम तरह की किश्तें भी भरनी है। केजरीवाल हो गया तो ये सब कौन करेगा? वैसे आधा केजरीवाल मेरे भीतर पहले से ही है, तब वो केजरीवाल नाम से नहीं था लेकिन था और शायद हमेशा रहेगा। ईमानदारी तो पहले से थी, कोशिश रही है कि मैं हमेशा, हर पल, हर किसी से, हर कर्तव्य से, हर माहौल में ईमानदार रह सकूं। रहा भी हूं, कम से कम अपनी तरफ़ से। लेकिन ये ईमानदारी अपने तक रही, कभी दूसरे की टूटती ईमानदारी को मैं टोक नहीं पाया। कभी दूसरों को ईमानदार बना नहीं पाया। मैंने जितनी बार बेईमानी को देखा, उसे अनदेखा किया, ये सोचकर कि किसी का स्वभाव कोई दूसरा नहीं बदल सकता। लेकिन केजरीवाल ने मेरे उस विचार को बदल दिया। इसीलिए मैं ये वाला केजरीवाल बनना चाहता हूं, अपने साथ दूसरों को ईमानदार बनाना चाहता हूं।

हमने ईमानदारी अपने लिये की। ये सोचकर की कि कहीं ऊपरवाला देख रहा होगा, हम ग़लत कर रहे हैं तो हमारे साथ भी ग़लत होगा। लेकिन ये वाला केजरीवाल आकर्षित करता है, इसलिये क्योंकि ये दूसरों के लिए जीता है, इसका मूल स्वभाव ही है दूसरों के लिए ईमानदारी करना। वो अपने लिये करता ही नहीं। कैसा जीवट इंसान है, ये सब ये कैसे कर लेता है? सुना था हमने पाप को दूर करो पापी को नहीं। आज होते हुये देखता हूं। पापी वही हैं, लेकिन वो पाप को छोड़ देना चाहते हैं, वो भी किसी सज़ा के डर से नहीं बस इसलिये क्योंकि वो भी केजरीवाल बन जाना चाहते हैं।

लेकिन मैं कैसे केजरीवाल हो जाऊं। मैं तो डरता हूं, आनेवाले वक़्त को सोचकर, अपनों के हितों को सोचकर, इनका क्या होगा, उनका क्या होगा, ये कैसे होगा, वो कैसे होगा? इन्ही सब सवालों के चक्रव्यूह में घिरा मैं वो अभिमन्यू हूं जो निकलने का रास्ता जानता है लेकिन जिन ज़जीरों में जकड़ा है, उसे तोड़ नहीं पाता। बस डर की वो ज़जीर टूटी तो मैं भी केजरीवाल हो जाऊंगा।

Comments

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